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बोधयात्रा – ५

Abhivyakti
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भगवान शंकर की पुत्री मनसा चाहती थी देवत्व अधिकार से, चाहती थी देवराज का सिंहासन लेकिन क्या देवत्व सम्भव हैं मिलना, इस कारण कि वह महादेव की पुत्री हैं, नही ये सम्भव नही| महादेव ने घोषणा की कि मनसा ध्यान से सुनो, देवत्व को आरोपित नही किया जा सकता देवत्व भीतर से आता हैं, इसे थोपा नही जा सकता, ये अधिकार का विषय ही नही हैं | ये तो श्रद्धा के द्वारा की गयी भक्ति का अमृत रस हैं | पलटू कहते हैं
“सच्चे साहिब से मिलने को, मेरो मन लियो वैराग्य हैं जी”
ऐसे पलटे पलटू कि राम को अपनी दुल्हनिया कहने लगे, ऐसे पलटे जमाने से, ऐसे जागे कि जीने लगे दशम द्वार में, जागरण आ गया, होश आ गया, टूट गई तन्द्रा, खो गई इच्छाये, अब तो चौबीस घंटे पीते हैं सत्संग का रस| प्रभु की तरफ जाने का मार्ग वही से शुरू होता हैं जब भीतर के सपने, जो प्रक्षेपण हैं हमारी इच्छाओ के, उनका दमन हो जाता हैं| सपने नही, जागरण चाहिये|
मुल्ला नसीरुद्दीन अपने लडके के साथ शराब घर में बैठा था, पीते पीते अचानक रुका और बोला अब और नही पीना, कहने लगा, सुनो, मैं तुम्हे एक खास बात बताता हूँ, जब इतनी पी ली जाये कि पीछे जो दो लोग बैठे हैं, लड़का पलटा देखा तो वहां एक आदमी था, मुल्ला दोबारा कहने लगा, जो दो बैठे है जब वो चार दिखने लगे, तो घर चले जाना चाहिए | मुल्ला का लड़का बोला लेकिन वहाँ तो एक ही आदमी बैठा हैं, ऐसी ही हैं हमारी तन्द्रा, हमारी इच्छाये कि हमारे ख्याल, हमारी नींद टूटती ही नही|
मुल्ला गली से गुज़रा सिर पर एक टोकरी लिए हुए | पडोसी ने पूछा, क्या है इसमें? मुल्ला बोला, नेवला हैं, पड़ोसी बोले, क्या करोगे, मुल्ला बोला, मुझे रात सपने में बहुत सारे सांप दिखते हैं, सुना हैं नेवला सांप के टुकड़े टुकड़े कर डालता हैं, पड़ोसी चौंका, बोला, सपने में सांप दिखते हैं तो इसमें नेवला क्या करेगा, मुल्ला मुस्कराया और बोला तुमने क्या सोचा, सचमुच नेवला हैं, नही, सिर्फ ख्याल हैं, खाली टोकरी हैं |
यहीं हालत हमारी हैं आज, खयालो की दुनिया बसा ली हैं हमने, सारा जीवन इन्हें संजोने में निकल जाता हैं, फिर उसके बाद सिर्फ अफ़सोस और कुछ नही| कैसा हो वैराग्य, कैसा हो जागरण, इसको समझना नितान्त आवश्यक हैं, अन्यथा ढूंढने गये थे प्रभु को, जगाने निकले थे वैराग्य को और अपने भीतर संसार सज़ा बैठे जैसे एक आदमी फूलों की तलाश में निकला क्योकि संसार में दुःख ही दुःख मिले यानि कांटे ही कांटे मिले, दूसरा आदमी गुलाबो की तलाश में निकला क्योंकि उसे संसार में यानि गुलाब के बदले कुछ फूल और कांटे मिले, तीसरा व्यक्ति फूलों की तलाश में निकला क्योंकि उसे गन्ध आ गयी थी फूलों से कि फूलों के बगीचे तक पहुंचा जा सकता हैं, ये फूल प्रमाण हैं इसका| बारिश की एक बूंद गवाह हैं कि बादलों में पानी हैं, दिखता नही, पर हैं, बूंद गवाही हैं वहां जल के भण्डार का | एक बूंद जब समाती हैं समुद्र में तो परिचय बन जाती हैं समुद्र का | वैराग्य सकारात्मक चाहिए, नकरात्मक नही, सच्चे वैराग्य का अर्थ हैं कि हम इस संसार को भी सहजता से स्वीकारे |
मुक्ति इस बाहर के संसार से नही, भीतर के संसार से पानी हैं, जो हमको सदा से भिखारी बनाये हुये हैं, सदा हम संग्रह करते और करते- करते विदा हो जाते है इस दुनिया से, ठग लेता ये संसार हमारे इस अनमोल जन्म को, जब हम उस साहिब के, उस दाता के चौकीदार ही हो गये, तब भिखारीपन कैसा? आपने कही देखा हैं ऐसा, जो उसका हो गया हो, उसे कही और जाने की जरूरत हो| आदमी को चाहिए क्या, दो रोटी, उसकी कोई कमी नही, दो कपड़े और दो गज जमीन, क्या कमी इसकी, जिसने जीवन में ये दर्शन अपना लिया, वो ही हैं उसका भक्त, उस प्यारे का नाम ही उसका परम धन हैं और उसका आनंद ही उसका परिचय है |
पलटू कहते हैं,
“क्षुधा को चारा डाल दीजो,
टूटा एक तुम्बा पास रखो,
रात दिन सत्संग का रस पीओ”
सच कहते हैं पलटू, जल तुम्बे में हो या सोने के गिलास में, क्या फर्क पड़ता हैं, प्यास तो जल से ही बुझनी हैं, विडम्बना यह हैं कि हमे जल की नही, सोने के गिलास की परवाह हैं, जीवन भर दौड़ते धन सम्पदा की दौड़ में, लेकिन भीतर जो आनन्द अमृत भरा हैं, उस तक पहुंच नही पाते या ये कहे उस अमृत को पाना चाहते हैं लेकिन धन सम्पदा भी छोड़ना नही चाहते, वो प्यास जगाते नही हम, जिसके बगैर संभव नही मिलन उस प्यारे से| कर्म योग से जाये तो कर्ता न बचे, ज्ञान योग से जाये तो ज्ञानी न बचे, भक्ति योग से जाये तो भक्त न बचे, ऐसी कसौटी चाहिए जागरण की, ऐसी प्यास चाहिए जिसके बगैर पल भी काटना मुश्किल, जब हर सांस सांस में उसी की याद हो, कहते हैं पलटू “ग्रह हमारा शून्य मैं अनहद में विश्राम” ऐसी जाग आ जाये जैसे एक व्यक्ति ने एक शेर के बच्चे को पाला, बचपन से ही घांस, फूस, शाक, सब्ज़ी पर पला, शुरू से ही यही खाया, वो गुर्राता भी न था, एक दिन वो अपने मालिक के पास बैठा था जैसे हमेशा बैठता था, मालिक के पैर में चोट लगी थी, खून बह रहा था, उस शेर ने वो खून चाट लिया, अचानक उठ खड़ा हुआ शेर, उसकी जीभ को स्वाद लग गया था खून का, गुर्राने लगा, मालिक ने भी बंदूक उठा ली, उस शेर को जंगल में छोड़ना पड़ा, जान गया था कौन हैं वो, ये भक्ति का रस भी ऐसा ही हैं, जिसकी जुबान पर लग जाये तो जीवन यात्रा बदल जाती हैं, जैसे भीतर का सारा संसार विसर्जित हो जाता हैं, उसका “मैं” भाव कह उठता हैं, जैसे कहा कबीर ने “जब मैं था तब हरि नही, अब मैं हूँ हरि नाही”|
एक फकीर से एक व्यक्ति ने पूछा भगवान कैसे मिलेंगे? फकीर ने कच्चा नारियल उसे दिया और बोला इस नारियल को इस तरीके से निकालना की गिरी न टूटे, गिरी साबुत निकालनी हैं, व्यक्ति ने कोशिश की लेकिन बात नही बनी, फकीर ने उसे अब पका नारियल दिया, उसकी गिरी आसानी से साबुत निकल गयी| फकीर बोले, कुछ समझे, जब जब तुम शरीर से बंधे हो, तब आत्मा को मुक्त नही कर पाओगे, जब शरीर छोड़ आत्मा में जीने लगोगे, एक विच्छेद हो जायेगा, तब आत्मा बढ़ेगी मुक्ति की राह पर जैसे किया मंसूर ने, जब काट रहे थे उसके शरीर को उसके दुश्मन, एक एक कतरा कहता था, अनहलक, अनहलक, हंसता था मंसूर, कहता जाता जिसे तुम काट रहे हो, वह मैं हूँ ही नही, मैं वह हूँ जिसे तुम काट नही सकते, जो कभी मिट नही सकता, मैं वो आत्मा हूँ, जो आत्मा में जीने लगा, वो मिट गया खुद से, उसका परिचय स्वयं परमात्मा हैं, जिसने छोड़ा खुद को उसने पाया खुदा को |

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