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मन का मनन -२

Abhivyakti
Abhivyakti
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आज मुझे कहा किसी ने सपने उसी के पूरे होते है
जो देखता है सपने,
और ये सोचते ही मेरा मन सपने
बुनने लग गया
पहले तो उलझन ये कि
सपना क्या हो
देख जरा सम्भल के कही
गलत लक्ष्य न बना लेना जीवन का
बोला एक मन तभी दूसरा बोला,
पहले सोचना शुरू तो कर
सपने बुनेगा,तभी तो देखेगा
नही तो रह जायेगा ठनठन गोपाल,
जैसा है आज तक,
फिर पहला बोला देख ये गम्भीर मामला है
जल्दी नही सोच समझ के बुनना,
तभी दूसरा बोला
क्या जल्दी नही, जल्दी नही लगा रखा है,
पहले ही इतनी देर हो चुकी जल्दीकर
इन दोनों की लड़ाई मै था मूकदर्शक
तीसरा मन मेरा, मज़ा ले रहा था तमाशे का,
इतने में दिमाग बोला क्यो कन्फ्यूज़ है
ऑफिस नही जाना क्या
मैं थोडा हिला जैसे जागा नींद से,
माला उठायी चल पड़ा पूजा करने
ले चला साथ अपने मनो को और
जैसा कहता भीतर उनसे चलो छोड़ो मेरा पीछा
मुझे नही उलझना तुम्हारे संसार में,
बैठा पूजा में करने चला था विदा अपने मनो को
होने चला था अ-मन,
लेकिन ये क्या, बैठा जरुर था पूजा में, मै शरीर से
लेकिन मन लगा था अपनी उधेड़ बुन मै
यात्रा करने लगा फिर विचारो के संसार में,
बीच बीच में कोई एक मन गोता लगा जाता था भीतर,
जैसे कंकड़ फेंका हो किसी ने ठहरे पानी में,
लहर उठी आत्मा में, मेरा क्या होगा
कब तक यूँ ही दबी रहूंगी,
कब मिलाओगे मुझे मेरे प्यारे से,
लेकिन क्षण भर ही बीता था
तरंग गयी, पानी ठहर गया था,
वापस आ गया था मै उस संसार में
मन बोला वो सपनों का क्या हुआ,
अब देख भी लो क्या जीवन बीतने के बाद देखोगे,
बीस मिनट की पूजा में बस एक क्षण ऐसा था
जब तरंग उठी थी आत्मा की,
सारी सोच पर एकक्षत्र राज था
इन विचारो के संसार का, नीचे आया मैं,
आदतन रोज की तरह तैयार होने लगा,
आदतन चल पड़ा उसी विचारो के संसार को लिये,
आ कर बैठा ही था कि यकायक आया मन,
बोला क्या सोचा, बुना सपना,
या बस रोज की तरह यूँ ही,
इतनी जोर से चिकोटी काटी
उस मन ने मुझे कि आत्मा से रहा न गया,
बोली क्या बकवास है अब मेरा फैसला सुनो
पहुँचना है मुझे उस ऊचाई पर उस उत्कर्ष पर,
जहाँ पहुंचते है बिरले,
जा कर कह दे अपने बाकी दोस्त मनो से,
तैयारी कर ले जाने की,
न उलझो, न उलझन बढ़ाओ
जाओ और कही खोजो और किसी को,
अब तैयारी है इस दीवाने की
दिवाना बनाने की, मंजिल तक जाने की|

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