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मन का मनन

Abhivyakti
Abhivyakti
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आज नज़र पड़ी रास्ते से गुजरते एक पुराने जानकार पर
देख के उसकी हालत मन मज़े लेने लगा
देखा उसे जब उसी हालत में जो थी बरसो पहले
देखने लगा मै अपने आपको रईसों की तरह
वही शर्ट पैंट और चेहरे पर चश्मा
मन लौट चला पुराने दिनों में
बनाने लगा हिसाब किताब
देख ज़रा उसको जैसे ठहरा पानी
इतने सालो से वही का वही,
देख ज़रा किस्मत उसकी
चलने लगा मन जैसे कि आदत उसकी
बड़ा सुकून आ रहा था उसे इस नज़रे हालात पर
पर ज्यादा देर ये सुकून ठहर नही पाया
रुकी मेरी कार एक लालबत्ती पर
और देखता क्या हूँ, मेरे साथ ही खड़ी है,
मेरे एक पुराने साथी की बड़ी लम्बी सी कार
सजा धजा सा बैठा था पीछे की सीट पर
अपने ख्यालो में खोया जैसे बुनता सपने
और बड़ा बनने के,
क्या कहने इस मन के फैलाव के
और बड़ा बस थोडा और,
कहते कहते कितना बड़ा जाल बना दिया
इसने हमारे आस पास
सोचता उसे,जो मिला था सबसे पहले
एक साल में एक बार सिलते थे कपड़े
वही तीन जोड़े बदल बदल कर पहनता था
वही आसमानी शर्ट और काली पेंट
फिर याद आया वो सुरेश बचपन का साथी
जिसे देखा था मैंने बरसों बाद,
आवाज़ लगायी सेठ ने अरे सुरेश पानी ला
और सुरेश हाथ में गिलास लेकर मेरे सामने,
क्या यह वही है मेरा जिगरी यार सुरेश
मन अब मज़ा नही लेता दुखता था
भूल गया था, मै अपनी रईसी अब समझ आ गया था
मेरा मतलबीपन मुझे
ये वो ही सुरेश था मेरा लंगोटिया यार,
जो रहता था मेरे आस पास हमेशा
सालों साथ गुज़ारे थे हमने
लेकिन ये जो देखा मैंने आज
वो कभी सोचा न था,
किस्मत का इतना भद्दा मज़ाक कब,
ये कैसे हुआ, पूछता मै सवाल अपने आपसे
कि मैंने किया क्या उसके लिए
कैसे,क्या,कब, क्यूँ घूमता दिमाग मेरा
लगाता सवालिया निशान मेरी दोस्ती पर
तभी दखल दिया मन ने अरे छोड़ ना
क्या गुजरे वक्त में पडा है अपनी सोच
इतना सीधा न बन
सीधे पेड़ ही सबसे पहले कटा करते है
देख तेरे कल को कितना सुहाना होगा
आया अभी जाता
दिखाता मुझे सब्ज़ बाग सुहाने है
पर अब मुझे मेरे एक और मन ने सवाल पूछा कि
उस सुरेश का क्या करना है,
देता मुझे उल्हाना,
क्या बैठे बिठाये बेकार की बकवास,
तभी दूसरा मन बोला देख ऐसा न सोच,
ऐसा न बोल, दोस्ती भी कोई चीज़ है आखिर
थोडा तो सोच देखते ही देखते मन आपस में लड़ पड़े थे
हुआ था तमाशा और बाकी मन भी इस चर्चा में कूद पड़े,
कोई कुछ बोले,कोई कुछ,
हज़ार मन थे और हजार विचार
तभी उनमे से एक चुपचाप मेरे कान में
आकर बोला देख ले, मै न कहता था,
मत हो सेंटिमेंटल,
दुनिया कहाँ की कहाँ पहुंच गई
तू वही पडा,
चल वापस दिल्ली
न उलझ इन हारे हुए लोगो में,
अपने को तो जीतने की आदत है
चल मेरे साथ,
कर मनन,ऐसा कहते मेरे मन,
डूबता वापस उस विचारो के संसार में,
करते मन अपना मनन
कहते चल आगे देख,
पडा है तेरे सामने ये सारा जीवन
फिर आया एक मन कूद के बीच में
जरा उस सबसे पहले वाले के बारे में तो सोचो
थोडा तो बाहर आओ इस दोगलेपन से
क्या किया जीवन भर,
अपने बारे में तो सोचा
लेकिन आदमी होकर आदमी के बारे में नही,
क्या इस धन को साथ लेकर जाओगे,
याद है न साधु बाबा कहते है
जो धन को प्यार करते है
इस दुनिया से जाने के बाद सांप बनते
और धन की रखवाली करते है
इसी बीच दूसरा मन आया कूदा बीच में,
क्या यार तुम भी,
कभी पहले वाले की और कभी बाद वाले की बात करते हो,
जरा उसके बारे में भी तो सोचो जो बैठा था उस लम्बी सी कार में,
देख कितना आगे चला गया तेरे से
तू देख जरा कितने पीछे रह गया
अगर तू उस को देख और फिर अपने आपको को
तो बस थोडा सा ही आगे है उस सुरेश से और वो जो मिला था
अरे वही तेरा पुराना,सुरेश का क्लोन,
हाँ वही यार जिसे तू कहता है पुराना जानकार,
अरे अब छोड़ भी दे क्या चीचड की तरफ चिपका है,
चल आगे चल आगे देख वो लम्बी कार वाला और बड़ा हो गया
और तू और छोटा और छोटा और छोटा|
आज फिर फंस गया था “मै”
इस मन के मकडजाल में और जीत गया था मन हर हाल में ,
अरे अब तो समझ इस मन के विस्तार को,
इस संसार के आधार को

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