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अमृतवाणी -५

Abhivyakti
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अपांतरम कहता है कि हे गुरुदेव आपने बताया, कहती है नीति, बुरा छोड़ो, भले बनो, भलाई करो, नीति बात करती है आचरण सुधारने की, लेकिन क्या आचरण सुधरने भर से अंतस का अन्धकार छट पायेगा, नही, नीति ये नही कर सकती, ये काम तो तब ही होगा, जब भीतर का दीया जलेगा और कमाल ये उस परम का कि दीया भी है भरा तेल से और माचिस भी है, सिर्फ थोडा रगड़ना है माचिस को और छुआ देना है बाती से और हो जायेगा प्रकाश, अन्तर्मुखी बने हम, बहिर्मुखी नही, जीना है मध्य में, अति में नहीं, संसार हो या मोक्ष, मध्य जरूरी है, जैसे कहते पलटू,
‘इंगला, पिंगला, पलड़ा दोनों लागी सूरत की ज्योति
सत्य शब्द की डांडी पकड़ी तोलू भर भर मोती|’

कहते है पलटू, भागवत धन की लूट है, लूट सके तो लूट, पर ये जो धन है वो लूटते क्यों नही हम सब, बड़ा सवाल है यह, लोग आते है सारे जहां से लूटने भागवत धन, पर दुसरे लोग समझ नही पाते कि ये कैसी कल्पना के संसार में जी रहे है सब, धन है कहाँ और जब कुछ है ही नही तो ये लोग कैसे और क्यों टूटे पड़ रहे है, ये तो दिखाई ही नही देता, कैसे सम्मोहन के जाल में फंसे है ये सब, पर ये सवाल भी साथ है कि हजारो मील की यात्रा करके भी प्यासा पहुंच जाता है गंगा पर प्यास बुझाने के लिए लेकिन जो प्यासा है ही नही, गंगा उसके घर के सामने से भी बहे तो उससे क्या होगा| खोज है परमधन की, खोज है बोध की, ढूंढने है मोती, जो डूबा वो तरा, मिला उसे, सब फर्क नज़र का है, भेद नज़र का है| जब बुद्ध ने घर छोड़ा, कहा सारथी से छोड़ आओ जंगल में, बुढा सारथी, जिसने सिद्धार्थ को बेटे की तरह समझा, छोटे से बड़े होने तक सालो साथ गुजारे थे, कहने लगा क्या है उस जंगल में, आप क्या खोज रहे है, यशोधरा आपकी पत्नी, पुत्र राहुल और अपने बूढ़े बाप को छोडकर, ये महल छोडकर क्या करेंगे, आप इन बूढ़े बाप के बुढ़ापे का सहारा है | लोग जंगल से महल की तरफ जाते है जंगल की तरफ नही| रो पड़ा बुढा सारथी, कहने लगे बुद्ध, मै इस महल को आग की लपटो में घिरा देख रहा हूँ| बुढा सारथी पलटा, बोला, मुझे तो कुछ भी नही दिखाई देता, कैसे दिखाई देगा उसे, इसे देखने के लिए अन्दर की नजर चाहिए| बुद्ध जानते थे ये सच, अंतरात्मा की अभिप्सा देती थी वह नजर कि देख जरा पीछे मुड के भूत में, कितने पूर्वज आये तेरे और गये क्या बोध को उपलब्ध हुए, नही, खाली गए, भरे आये थे | यही लुटा साँसों का ख़जाना, अनमोल जीवन जैसे यूँ ही इस मन के भुलावे कि कल आने वाला है एक सुख से भरा, बस आता ही है, अभी आया लेकिन कल शाश्वत है वह हमेशा हमसे उतना ही दूर था जितना आज | विडम्बना यह भी है कि जो है नही, वो हो जाए तो जिन्दगी सुखी, पर इसका क्या पैमाना? महल में रहने वाला, नरम बिस्तर पर सोने वाला, देखता जब किसी भिखारी को खुले में मस्ती से सोते हुए तो मन ही मन कहता, क्या किस्मत है मेरी, मेरे पास सब कुछ है पर ये नींद नही, बेफिक्री नही, इसके उलट भिखारी सपने देखता महलो के, महल में रहने वाला पकवान खाकर भी खुश नही, और उधर भिखारी रात में सपने देखता कि वो आमंत्रित है महल में भोजन के लिए और तभी नींद खुल जाती और सपना खत्म, बात वही की वही| आज बम्बई वाले को कश्मीर का सौन्दर्य देखने की इच्छा है और कश्मीर में रहने वाला कहता अगर बम्बई देखे बगैर मर गया तो दिल की तमन्ना दिल में लेकर मर जाऊंगा| एक बार बम्बई दिखा दो, शांति से मरूँगा, शहर में रहने वाला कवि वर्णन करता गाँव के सौन्दर्य का और गाँव जाने के लिए कोई कहे तो कहता है कि ये गाँव मात्र की कविता है | गाँव वाले को शहर चाहिये और शहर वाले को गाँव के खेत खलिहान और हवा पानी की चाहत है| ये मनुष्य का मन है जो ताने बाने बुनता नित नये, जो मिला उसकी कद्र नही, जो नही मिला उसके लिए सपने देखता और फैलाव बढ़ता जाता इसका, जितना है उससे ज्यादा चाहिये, हमेशा छलता हमे जन्मो जन्मो से| जान इसे, जी आज और अभी में, निकल इस मन के मकड जाल से, नही तो ये जन्म भी व्यर्थ हो जायेगा, सोच ज़रा !

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