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भावसागर(4)

Abhivyakti
Abhivyakti
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अरे ओ कान्हा ये जो तेरा दुलार है मेरे लिए जिसकी कोई सीमा नही, कोई ओर क्षोर नही| ये लुटाते रहना सदा मुझ पर बस इतनी सी कामना है कि ये याद है जो तेरी, सदा रहे, वह बनी रहे मेरे अन्त:स्थल में | अरे ओ कान्हा, तूने दिखाई मुझे राह, बनायी मेरी समझ कि रखा नही कुछ भी इन पत्थरो की मूर्तियों में| यदि होता कुछ बुरा इनके आगे सिर न झुकाने से तो पहले होता उस शिल्पकार का जिसने तराशा इसे रख अपने पैरो के नीचे| क्यों नही ये जीव देखता अपने सामने जीते जागते तेरे अंश को जो विद्यमान है हम सब में, घटता है जो पल पल हममें ,धडकता है हम सब में| बनाये हम जाग्रत अपने आपको और बढ़े उस प्रभुता की ओर| ये पशुता तो तेरे लिए नही बनी, तू तो श्रेष्ठ कृति है उस परम की, जब जगाता है ये ठाकुर तो क्यो नही जागता ? क्या उम्र गुजार देगा यूँ ही सो कर, जरा घड़ी भर जागकर देख | क्या रखा है सोने में ?
क्रमशः

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