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भावसागर(1)

Abhivyakti
Abhivyakti
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अरे ओ कान्हा तेरे ध्यान के क्षण इतने अनमोल है कि इनका कोई सानी नही| जिस वक्त में जीता हूँ तुझमें सही मायने में वही पल होते है, जब एहसास चरम पर होता है तेरे साथ होने का| अरे ओ कान्हा इतना भर जाता हूँ मै आनन्द से कि एक निश्चल शान्त भाव चेहरे पर, मन में एक निश्चिन्तता, जो तेरे साथ होने के बोध कराती है मुझे | कान्हा, ये जो मन है न, इसका काम है डोलना, कभी भूत में कभी भविष्य में | जो वर्तमान का पल है न कान्हा, वो ही अनमोल है वही है तेरे से मेरी निजता की घड़ी, बाकी समय तो बस यूँ ही | क्या कृपा न करेगा तू कि सदा मै रहूँ वर्तमान में तेरे साथ, तेरे समीप? कर दे रे कान्हा, जब इतना किया है मेरे लिए तो ये भी कर दे, अपनी याद दे मेरे चित में वर्तमान के उस अनमोल क्षण में | अरे ओ कान्हा, दिया तूने अपने को याद करने का हक, एक ऐसा आनन्द, ऐसी मुस्कान, जो मुझे सराबोर कर गयी एक ऐसे एहसास से, जिसमें जिया मैंने ऐसे पलो को, जिसमें बोध था तेरे मौजूद होने का | तेरे को पाने का वो क्षण भुलाये नही भूलता मुझे ओ कान्हा | ये मिलन ऐसा था, जिसकी तुलना मै निर्वाण से भी नही कर सकता | एक तेरे सान्निध्य की टेक ऐसी, जैसी एक अनाथ को गोद मिल गयी हो आकाश की, एक ऐसा कोमल एहसास, जो सदा के लिये बना गया मुझे तेरा| आज मै अनाथ नही, सनाथ हो गया |

क्रमशः

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