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चेत सके तो चेत-3

Abhivyakti
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ये कहानी आप सबने सुनी होगी कि एक टोपी वाला टोपियां बेचता था | एक दिन जब वह गुजर रहा था जंगल से, थका माँदा, एक घने वृक्ष की छाँव में बैठ गया सुस्ताने के लिए| थका हुआ था, नींद आ गयी| जब सोकर उठा, देखा उसकी टोकरी, जो टोपियो से भरी थी, अब वहाँ कोई टोपी न थी| वह घबराया इधर उधर देखने लगा | लेकिन कोई अता पता नही | जब उसने उपर की तरफ देखा तो पता चला कि इस पेड़ के उपर जो बंदर थे, उन सबने टोपियाँ पहनी हुई थी | वह मन ही मन हंसा और उसे गुस्सा भी आया| वह परेशान था, कैसे टोपिया वापस मिले ? तभी उसे युक्ति सूझी, उसने सुना था अपने बडो से कि बंदर नकलची होते है | उसने अपनी टोपी उतारी और जमीन पर रखी| बंदरो ने भी वही किया और उसकी युक्ति काम आ गयी, सारी टोपियां जमीन पर आ गिरी | उसने सारी टोपियां उठायी और खुशी खुशी चल दिया दूसरे शहर | ये कहानी बहुत सालो से चली आयी, पीढी दर पीढी बंदरो के साथ भी और आदमियो के साथ भी लेकिन आज का युग वैज्ञानिक युग है | कहानी बदल गई है| इस टोपी वाले का लड़का भी टोपियां बेचता था | उसके साथ भी यही हुआ| उसने भी वही किया, जो सुना था उसने अपने बडो से, दादा से, पिता से, सबसे लेकिन अब बंदर बहुत समझदार हो गये थे | जब उसने देखा कि बन्दर टोपी पहन कर पेड़ पर बैठे हुए है तो उसने वही तरीका अपनाया| अपनी टोपी जमीन पर रख दी लेकिन अब बन्दरो ने वो नही किया जो पहले करते थे | उनमें से एक बन्दर जिसके पास टोपी नही थी नीचे उतर कर आया और उसकी टोपी उठा के पहनी और पेड़ पर वापस | अब समझ आया टोपी वाले को कि जमाना बदल गया है | आज के बन्दर समझदार हो गये है, पर हम समझदार कब बनेगे | अभी भी उलझे है किस्से कहानियो में, वैज्ञानिकता नही, जागरण नही, क्यो नही जागे हम? आज भी उलझे है कथाकारों की कहानियो में, लच्छेदार बातो में रस ले रहे है, कोई एकाध ही जाग पाता है लेकिन अधिकतर तो जो सुनते है, वो सुनते ही नही| जो विचार जिनको सुनकर वो आनन्दित हो रहे थे, कथा से उठते ही वही झाड़ के आते है, घर तक भी नही लाते, उठते ही दुनियादारी शुरू | आज हम चल रहे है मन के धरातल पर, जो पल पल बदलता है |

एक कहानी जो सुनी है सबने | एक व्यक्ति थका हारा जंगल से गुजरा, घना वृक्ष देखा, उस वृक्ष पर एक भूत रहता था| सोचा, क्यों न विश्राम कर लूँ | बैठा, तभी उसके मन में विचार आया कि जल मिल जाता तो अच्छा रहता, देखते ही देखते जल आ गया, पी कर तृप्त हुआ| फिर सोचा कि यदि भोजन मिल जाता तो अच्छा रहता | सोचने की देर थी कि छप्पन भोग का थाल सज के आ गया | जल भी, भोजन भी सब मिल गया| अब सोचा थकावट दूर हो जाती यदि बिस्तर मिल जाता तो बिस्तर भी आ गया | वह लेटा ही था कि अचानक विचार आया उसके मन में कि जब आया था तो कुछ न था, सोचते ही जल, भोजन, बिस्तर, सब आ गया | ये हुआ कैसे? कही इस पेड़ पर कोई भूत तो नही है, जो मुझे खा जाये| इतना सोचने की देर थी कि भूत आया और उसे खा गया | आज यही हमारे जीवन में भी हो रहा है| आज हमारे मन में विचारो की श्रृंखला टूटती ही नही, भूत और भविष्य से और इस बीच में हमारे जागरण को वो पल जो वर्तमान है वो खो जाता है | इन दोनों कहानियों को कहने का मेरा मतलब इतना भर है कि हम हमेशा वैज्ञानिकता में जीये, अन्धविश्वास में नहीं | अगर हम रामायण भी बांचें, तो खोजे उसमें प्रभु के सन्देश को, उस सत्य को जो कहना चाह रहे है और प्रभु ने उसे अपने जीवन के माध्यम से करके दिखाया है | हम रटे नहीं, जागरण laayelaayenलायें स्वयं में, एक जागरण लायें भीतर से | एक कथाकार ने पूछा गुरूजी से कि उसने अपने वाकचातुर्य से अपने आस पास लोगों का एक समूह एकत्रित किया है जिसकी संख्या लगभग ५००० है और इसमें ५० तो उसे भगवान मानने लगे है | कहते है कि आप साक्षात् प्रभु है | आपके कहे वचन सत्य का पर्याय है| मै कहता हूँ कि समय आने पर मै बोलूँगा कि सत्य क्या है | जबकि सच्चाई यह है कि आपके विचार बड़ाई पाते जा रहे है | मै संन्यास नहीं ले सकता | मै क्या करूँ ? मै बहुत दुविधा में हूँ | गुरूजी ने पूछा, क्या ये विचारों का बगीचा तुमने स्वयं उगाया है ? जवाब भी स्वयं ही दिया | नहीं, ये बगीचा नहीं तुम्हारे पास | तुमने इसके लिए पुरुषार्थ नहीं किया है, अपितु तुमने ये विचारों के फूल चुन लिए है दूसरों के बगीचों से | ये उधार के विचार है | तुमने गुलाब सजा लिए है घर में, लेकिन जब तक तुमने गुलाब की क्यारी नहीं की तब तक तुम कैसे जानोगे कि कैसे ये विचार जो परोसते हो तुम अपने स्वयं का बनाकर |

ये जो गुजरात के कथाकार कह रहे है कि अपने वाक्- चातुर्य से ५००० लोगों की भीड़ जुटायी है | उन्होंने और इसमें से ५० लोग तो ऐसे है जो उन्हें भगवान मानते है और सत्य को पाया जिसने ऐसे परम आदरणीय बुद्ध के रूप में उन्हें मानते है, जानते है और इच्छा रखते है कि उन्हें सत्य की प्राप्ति की मंजिल तक पहुंचाएंगे ये कथाकार| ये सत्य है कि जहाँ भीड़ है, वहां सत्य नहीं भीड़ को कभी सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता है |

क्रमशः

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