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सहजानंद

Abhivyakti
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सहजानंद

आप एकांत में बैठे हो तो बात करे अपने आप से और पूछे क्या आपने गढ़ा है अपने आपको एक शिल्पकार की मूर्ति की तरह | क्या जाना है हमने स्वयं को, क्या जाना है हमने अपने शरीर, मन और आत्मा को? एक छोटी   सी बात महसूस करे आप, जब आपके सिर मे दर्द होता है तब आप जानते है अपने सिर को, जब पैर सो जाता है तब जानते है कि पैर है, अन्यथा क्या आप जानते है शरीर को कभी, समक्ष होते है इसके ? नही, जब हमारी कोई खवाहिश पूरी न हो तो हम जानते है कि मन दुख रहा है, अन्यथा नही | जब कोई ऐसा विचार अपके मन में आये जो निकृष्ट हो और आपकी आत्मा आवाज दे कि नही ये नही करना, तब आपको अह्सास होता है कि कोई है उर्जा मेरे में जो चेता रही है| क्यो हम बन गये ऐसे कि हम अपने आप से कट गये, सिर्फ जीने लगे सपनो में, सपनो की दुनिया में, वो इसलिए कि हमने अपने आप को बहने दिया इस महत्वकाक्षा की अन्धी दौड में| सही मायने मे जीवन क्या होना चाहिए, कैसे जीया जाना चाहिए, क्या लक्ष्य होना चाहिए जीवन का, कोई सौ में से एक अपने को, अपने जीवन को, उस परमात्मा की एक देन मान कर अपनी जीवन की यात्रा करता है, उससे एकाकार होने की यात्रा, उसमें अपनी लौ को समाहित करने की यात्रा और ऎसे गढता है अपने आपको एक कुशल शिल्पकार की तरह, ऎसे हटाता है अपनी आत्मा के उपर चढे उस मैल को| भगवत स्मरण क़ॆ द्वारा, साधना के द्वारा, जैसे कोई शिल्पी   हटाता है उस बेकार पत्थर को, जिसके अन्दर छिपी है मूर्ति, सिर्फ आवरण को उघाड़ना ही तो है, मूर्ति तो पहले से उसमे थी ही |

आज हमने अपने जीवन की खुशियो को रख दिया उस पलडे में, जिसके दूसरे छोर पर है मह्त्वाकांक्षाये और वो भी किसी दूसरे की नही है, हमारी ही है और जीवन कट जाता है इनसे लेन देन करने में और हाँ हमेशा जीतती मह्त्वाकांक्षा ही है| उसका पलडा हमेशा भारी होता है | हमारे जीवन की कला खो गयी है | मोह है हमे इस माया से, ससार से और जब माया मिलती है तो साथ में आता है इसे खोने का भय| जीवन का सौदा कर लिया आपने उस पैसे के लिए, संपत्ति के लिए, जो कभी किसी एक की हो ही नही सकती | सिर्फ छलावा मिलता है जीवन के अर्थ जाने का | अहसास भी तब होता है जब जीवन की उतराई शुरु हो गई होती है, चिंता की लकीरे इतनी गहरी की शरीर ही नही, मन और आत्मा पर भी उसके बोझ को हम असानी से देख सकते है | क्यों नही बनते हम शिल्पी अपने जीवन के और क्यों नही यात्रा करते हम उस सहज स्वरुप परमात्मा के आनन्द की?  ये सवाल हर कोई करे अपने से, तो जीवन की यात्रा की दिशा बदल सकती है| उस परम को पाने की तरह स्वत: ज्ञान की यात्रा कर सकते है हम|

इसमें और थोड़ा गहरा उतरे तो पायेंगे हम, इस यात्रा में हमें यात्रा करनी है अपने भीतर को परिवर्तित करने की| मनुष्य के अन्दर शैतान और साधु दोनो है | हमे करना ये है कि अन्दर के शैतान को खत्म करना है ,जो दिखता नही है, पर जब मौका मिलता है तो बाहर आने मे एक क्षण भी नही लगाता और दिखाने में अपना असली रुप | यही तो परिर्वतन यात्रा करनी है हमें|

एक चित्रकार को अपनी 40 वर्ष की आयु के बाद विचार आया क्यो न किसी ऎसे आदमी का चित्र बनाया जाये जिसकी आखो से परमात्मा देखते हो| उसके चहरे का भाव, आँखें और अन्य सब ऎसे दिखते हो, ऎसे प्रतीत होते हो जैसे परमात्मा उतर आया हो मनुष्य के वेश में | बहुत ढूंढा उसने, उसको कई साल देखता रहा, ढूंढता रहा लेकिन उसने आस नही छोडी | अचानक एक दिन जब वह गुजर रहा था एक पहाडी के उपर से, देखा एक गडरिये का लड्का जानवर चराता हुआ, उसे देखते ही उसे लगा उसकी तलाश पूरी हुई| उसने उसका चित्र बनाया बहुत ही सुन्दर चित्र बनकर तैयार हुआ| देश विदेश में चित्र की बहुत प्रशंसा हुई और बहुत संख्या में बिके चित्र और प्रशंसा भी सच ही थी क्योकि चित्र ऎसा था जिसका वर्णन करने में ऐसा लगता था कि हम परमात्मा के प्रतिरुप छवि का वर्णन कर रहे है | 20 साल गुजर गये इन बातो को| एक दिन चित्रकार के मन में विचार आया कि क्यो न एक ऐसे आदमी का चित्र बनाया जाये जिसे देखने से शैतान का प्रतिरुप साक्षात् दिखे और जैसे नरक का दर्शन हो| उसने खोजा बहुत | मदिरालयों में, जुआ घरो में, बहुत दिन भटका | अंततः उसकी तलाश खत्म हुई एक जेल में जहाँ एक कैदी मिला, जो भयंकर खूनी था, जिसके सर पर 7 खून करने का इल्जाम था | इतना भयंकर कि देखने से ही शैतान के सामने होने का अहसास हुआ | उसने चित्र बनाया उसका बहुत ही लगन से और ये चित्र भी जब बनकर तैयार हुआ तब वह घर आया और अपना पहला चित्र जो बनाया था उसने वह लेकर (जो बनाया था 25 साल पहले) कारागार में पहुंचा और तुलना करने लगा दोनो चित्रो को, देखा दोनो चित्र एक दूसरे से           अव्वल नजर आते थे | अचानक उसने रोने की आवाज सुनी किसी की, देखा वह कैदी पीछे खडा था जंजीरो में जकडा| चित्रकार बोला रोये क्यों? वह बोला, बहुत दिन मै यह बात बताना चाहता था आपको कि मै वही हूँ जिसका चित्र बनाया था आपने कई वर्ष पहले| मेरी यात्रा बदल गयी, मेरे अन्दर के शैतान ने हरा दिया मेरे साधु को और आज मै सामने हूँ सबके एक शैतान के रुप में, नारकीय जीवन जीता हुआ | बात यह है कि जब तक यात्रा नही करेंगे हम चित्त को परिवर्तित करने की, होगा नही कुछ |  ज़ब हम जानते है कि परमात्मा सहज है, सहजानन्द है, तो इसको मिलने में कठिनाई क्या है?  वो यह है कि हम अपनी शक्तियों से अनजान है, नही जानते समझते कि हममे वो सब है जिसकी तलाश करने की बात हम करते है| क्या ये यात्रा बम्बई से कलकता की है? नही, ये बाहर की नही, भीतर की यात्रा है | ये यात्रा है शरीर के धरातल से मन के धरातल की और आत्मा के धरातल की | आपने सुना होगा अक्सर कहते है लोग, जहाँ काम, तहाँ राम नही, नही काम तहाँ राम | क्यो कहते है ऐसा, क्या बुरा है प्रेम में, जिसका प्रथम बिन्दु काम है नही, प्रेम करना तो बुरा नहीं है, तो बुरा क्या है, क्यो हम बैठे है अपनी सोच पर गांठ मार कर, क्यो नही हम परमात्मा द्वारा दी गई इस प्रेम उर्जा को गहरे से समझते और     जीतते पहले शरीर से और फिर मन से और फिर आत्मा से धरातल पर हमे मिलता आध्यात्मिक प्रेम, जो है समाधि | परमात्मा ने अपनी इस सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य में क्या ऐसा है जिसे हम देखते है हेय दृष्टि से|             बुरा मानते है, समझते है लेकिन यदि ये प्रेम ही नही होता उसकी इस सृष्टि की इस कृति में तो कैसे होता सृजन  और जिस चीज की उर्जा को, भाव को सृजन के लिए बनाया उस परम ने, वह कैसे निन्दनीय है, बुरी है? किसने कहा इसे बुरा? अगर है इतना बुरा तो बुरा कहने वाले क्यो नही पूछ्ते उनसे ये सवाल, जिन्होने पैदा किया उन्हे उनसे| एक ऐसा विरोधाभास पैदा कर दिया है समाज में इन ठेकेदारो ने जैसे जहर कह दिया जाये प्रेम को, ऐसा विरोधाभास जो निरंतर अंतर्द्वंद रखता है मन में |

एक कहानी कहते थे गुरु जी | एक सेठ के यहाँ एक नौकर था| जब देखता वह सेठ क़ॆ यहाँ ठाठबाठ मन ही मन बहुत परेशान रहता| इतना परेशान कि कई बार उसके अन्दर का क्रोध उसकी बातो में, चेहरे पर साफ साफ झलकता| बहुत परेशान पूछा मित्र से क्या करूँ, बोला, एक काम कर, इस सेठ की फोटो घर में लगा और जब सुबह काम पर आए तो पांच जूते मारकर आना ठंढक पड़ जायेगी मन में | पहले तो नौकर को अट्पटा लगा लेकिन      बार बार कहने पर मित्र के, उसने ये किया, अदभुत परिणाम निकले इसके| उसका तो व्यवहार ही बदल गया  विनम्रता आ गयी उसमें| सेठ भी खुश था, पूछा क्या हुआ, आजकल बहुत खुश हो | बोला वह, यह राज है, राज ही रहने दे मालिक तो अच्छा | क्या हुआ, सिर्फ ये हुआ कि हमने अपने क्रोध से अंतर्द्वंद उत्पन्न हुआ था, उसे समझ कर किया, अब गलती भी ठीक हो गई | लोग कहते है प्रेम बुरा है क्यों, क्यों नही हम खुजराहो की मुर्तियो को देखते लगातार एक दो घंटॆ तक, दिख जाएगा आपको जिसे समाधि की अवस्था मे प्रेम करते दिखाया गया है उन मुर्तियो में, उनके चेहरे के भावो में, समाधि के भाव है| इन्हे बनाने वाले आध्यात्मिक प्रेम को उपलब्ध हो गये थे| जब कोई शरीर की यात्रा से भी अपने आपको मन और आत्मा के धरातल पर ले जाने के बजाय निन्दा करता है खुजराहो की, तो ये निश्चित तौर पर, उसकी दिमागी तौर पर दीन होने की निशानी है | महावीर तो वस्त्र पहनते ही नही थे, पर उनके चेहरे पर ओज था परम का| महवीर का अर्थ वीर्य से पूर्ण और जैसे थे वे अपने अन्दर वैसे ही थे बाहर, क्या हुआ वे तो भगवान थे | उन्होने अपने ध्यान से उसी सुख की अनुभुति की, जो मिलती काम से, यात्रा की राम तक| जब ये काम की यात्रा प्रथम सोपान है राम तक जाने की तो क्यो नही हम समझते इसे गहराई से| ये सूत्र है परमात्मा की सृष्टि के सृजन का | यदि कोई व्यक्ति यदि गोबर का ढेर वो भी सड़े गोबर का, हमारे घर के बाहर डाल जाए तो ऐसी दुर्गन्ध होगी उसको कि साँस लेना दुभर लेकिन यदि इसे एक खेत में डाल दिया जाए और फूलो की खेती की जाए तो वो फूल महका देगे पूरे वातावरण को | इसी प्रकार हमें शरीर से लेकर यात्रा करनी है आत्मा की और वो हो न सकेगा बगैर इस उर्जा के | हाँ फर्क इतना जरुर है कि पहले शरीर के धरातल पर  हमने समाहित किया ध्यान इसमें और धीरे धीरे ये यात्रा बढ़ी मन और फिर ये पहुची आध्यात्मिक प्रेम तक| प्रथम सोपान से अंतिम सोपान तक|

जरुरत है हमे उस आनंद को अपने में जीने की | हमे हटाने होगी झूठ की परतें, जो एक तरह से दूर करती है हमे उस आनंद की यात्रा के पथ से, जिसे हम पुकारे, जिये, अपनी आत्मा से, तो हमें अनुभव होगा, उसके संग होने का हर पल में, हर क्षण के अंतराल में, जब वह करेगा चित को निर्विचार हमारे और भर देगा उस क्षण के अंतराल मे अपने उस परमानन्द को, जिसकी यात्रा हम करते है अपनी समाधि में और अब वह उपलब्ध है, जी रहा है हममे बोल रहा है हमारे रोम रोम से और पा लिया है हमने उस सहज आनन्द को |

ललित अग्रवाल

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