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प्रतिध्वनि

Abhivyakti
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हमारे इतिहास में एक महात्मा का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है । वैसे तो वे विवाहित थे, संतान भी थी उनकी, पर एक अवस्था के बाद उन्होंने ब्रम्हचर्य लिया था । पर क्या जो लोग ब्रम्हचर्य लेते है वे समाज के सामने, जो शपथ लेते है वह उस पर पूरा खरा उतरते है ? जीवन में बहुत कठिन है ये । दस में से नौ मामलों में ये दिखावा भर है और यदि उसने इसको समाज के सामने साध भी लिया जीवन में, तब भी मन की आँखें चोर है, मन चोर है । कही न कही मौका मिले तो कैसे भी संतुष्टि हो, ये भाव रहता है । क्यों लिया आपने ब्रम्हचर्य ? क्या स्वार्थ था उनका इस व्रत को लेने में ? अपने आपको महान कहलाने की आकांक्षा और दूसरों से श्रेष्ठ कहलाने की आकांक्षा । इसका एक पहलू यह भी है कि यदि उन्होंने जीवन में अपनी सारी ऊर्जा कम उम्र में इसे साधने में में लगा भी दी तो क्या जब जीवन में उतार आया तो क्या इसे साध पाये वे? नहीं। और तो और जो वह जीवन में दिन में करते है, अपने संत होने के वर्चस्व की बाड़ लगाकर नियमित, वह रात्रि में उनका साथ नहीं देता । संत होने का जाग्रत मन जब सुप्त हो जाता है तो उन्हें स्वप्न आते है रात्रि में क्योंकि कही न कही अंतर्मन दिन में भी यही ढूढ रहा था जो रात को प्रतिध्वनि बनकर आया । उस महात्मा के साथ तो इतना हुआ कि उनके जीवन काल में उतराई पर उनके साथ एक दूसरे विस्तर पर एक नग्न स्त्री को सुलाया गया जिसकी तरफ देखकर वे अपनी सोच में काम की व्यर्थता को जानकर संतुष्ट होते थे । यह एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके लिए वे अपने आप से जीवन भर लड़े थे । वह तो कम से कम इतने निष्ठावान तो थे कि उन्होंने ये कह कर माँगा । बाकियों के साथ तो ऐसा भी नहीं है ।

हमारा जीवन विरोध है । इसका सिद्धांत है विरोध । जब साँस अंदर जायेगी तभी तो बाहर आएगी । अगर यह बाहर ही रुक जाय या अंदर ही तो जीवन समाप्त हो जाएगा । आने वाली साँस ही जाने वाली की प्रतिध्वनि है, विरोध है ।

शून्य है तो अनंत है । अंदर गयी तो शून्य, बाहर आयी तो अनंत । एक प्रक्रिया है विरोध, प्रतिध्वनि जो जीवन के अंदर हर मायने में चलती है ।

दिक्कत यह है कि हम अपने बगुला चित्त के गुलाम बन कर रह गये है । ध्यान से देखो, आप अपने साथ मुखौटे रखते है । जैसा मौका, वैसा मुखौटा । क्यों होता है हमारा चित्त बेईमान क्योंकि हमें परमात्मा ने जो समझाने की कोशिश की, हम उसे समझ ही नहीं पाये । हठधर्मी हो गये है हम । अपनी आँख फोड़ने से यदि हम लोगो को धार्मिक लगे, प्रशंसा मिले, शरीर को बर्फ के पानी में नहाने या आग के सामने तपाने के लिए प्रशंसा मिले तो हम यही करते है जीवनभर । क्यों हम इतने मुर्ख है ? क्यों हम बगुले के चित्त की तरह अपना चित्त रखते है बेईमानी भरा ? क्या मिलेगा इससे? कुछ नहीं, हाँ ये जरुर मिलेगा कि आपके पास भीड़ होगी जो आपके अहंकार को तृप्त करती रहेगी । क्या ये भीड़ हमें समाधि दिला सकती है ? नहीं । फंस के रह गये है हम मोहजाल में, झूठ के, जबकि हम अपने आपको संन्यासी कहते है । कहाँ है संन्यास, दिखावा है क्या ? मन में कहा है वैराग्य ? पाया क्या ? जीवन को ठग नहीं लिया क्या इस बगुला चित्त ने ।

एक सिद्धांत कहा प्रभु ने कि हर चीज के कर्ता में अकर्ता को देखो, काम में अकाम को देखो, मूल्यवान में व्यर्थता को देखो । अगर हमें पता चलता है कि इस जीवन में धन-संग्रह का कोई मोल नहीं है, व्यर्थ है तो लोभ गिर जाता है । बदल जाते है हम ठीक इसी प्रकार से जब यदि हमें पता चले कि ‘काम’ व्यर्थ है, निम्न चेतना है तो गिर जाएगा यह, सतायेगा नहीं । जब पता चला कि व्यर्थ है, तो पकड़ छूट गई ।

दबाते है हम इसको निरंतर । फिर यह फूट-फूट कर बाहर निकलता है क्योंकि हमने ठीक तरीके से जाना ही नहीं बात को , समझा ही नहीं । उलझ गये बस इससे, दो-दो हाथ किए इससे । जवानी में तो साध लिया । जो ऊर्जा थी साधने में लगा दी । परन्तु चित्त तो दब नहीं सकता । जितना दबाओ और ज्यादा मुखरित होकर निकलेगा । जवानी में नही तो बुढ़ापे में सही । हमें बेईमान बनाकर छोडेगा क्योंकि हमने इस चित्त को समझाया ही नहीं, तरीके से इसे ‘काम’ की व्यर्थता को ।

किसी भी चीज को दबाओ मत। हिंसा न करो मन से उसे हर चीज के सामने खड़ा करो, समक्ष करो और चलने दो पूरी कहानी । देखो परिणाम, आपके कहे आपके साथ चलेगा । एक विशाल शक्ति का मालिक है हमारा मन । हम इससे लड़ नहीं सकते ।

अगर अंधे को आँख नहीं है और वह किसी सुन्दर स्त्री को देख नहीं सकता तो वह क्या कम कामी होगा दूसरे से ? नहीं क्योंकि उसकी अंदर की आँखे निरंतर इसका ध्यान करती है कि कैसे हो यह सब । उलझाव मन का है, तन का नही । जिस दिन हमारा चित्त इस बात को मान लेता है कि यह व्यर्थ है, वह आपके ब्रह्मचर्य के साथ खड़ा होता है उस काम के विरुद्ध वैराग्य का भाव लिए । क्यों नहीं सही तरीके से अपनाते हम ?

गुरूजी कहते है कि ओ मंदिर,मस्जिद की तरफ झुकने वालों, जिंदगी खुद ही एक इबादत है, जरा देखो तो सही ।

जो स्वप्न हम दिन में देखते है अपने सुप्त चित्त में, पर नियंत्रण करते है उसे अपने जागृत चित्त से । परन्तु जब रात हो जाती है और जाग्रत चित्त सो जाता है तो सुप्त चित्त जो दिन में था, उसके सपने रात में सताते है । यह उसी ध्वनि की प्रतिध्वनि है । अगर हम ध्यान करें तो एक समय के बाद ऐसी अवस्था भी आती है कि हम साक्षी होते है अपने चित्त के और सपने में भी ये जागरण आ जाता है कि ये सपना है तो सपना गिर जाता है, व्यर्थ गिर जाता है । एक नाता टूट जाता है ध्वनि और प्रतिध्वनि का और जीत जाते है हम । अपने मन की भावना से हठ कर के नहीं, ध्यान करके उस परम का जागरण का

बंदगी करके बंदे न पाये वो

हम मयखाने से खुदा बनकर निकले

एक देखने जैसी चीज और है । इसमें ‘कामना’ इच्छा ही होती है, चाहे वह संत करे आज के समाज में हिमालय में बैठकर या आम आदमी । आम आदमी जमीन पर कुछ चाहता है, ये कामना है और संन्यासी स्वर्ग में, यात्रा एक ही है । सिर्फ जगह बदली है । स्वप्न स्वप्न है, चोर का हो या सिपाही का । भीतर के तल पर यात्रा चाहिए, ऊपर के तलों पर नहीं । गहराई यही है । इसे समझो । जीसस को चाहने वाले को स्वर्ग में भवन मिलेगा, ये दुष्प्रचार क्या किसी को कुछ दे पायेगा । साधना है परम की, साधना कामना की नहीं ।

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